Saturday 31 August 2013

मैं एक पहेली


मैं सभी के लिए
यहाँ तक कि
अपनों के लिए भी
एक पहेली हूँ
ये पहेली सुलझती तो है
पर कई पूर्ण विराम के बाद
इन पूर्ण विरामों से वक्त के
कई कोरे पन्ने
जब सोचने और समझाने से
भर जाते हैं
तब कहीं जाकर
हम किसी को समझ में आतें है
और जब समझ में आतें हैं आनंद
कभी वो ,तो कभी हम
बहुत दूर निकल जातें हैं
ये बताना भी मुश्किल होता है
कि पहेली सुलझा ली है
क्योंकि जब तक सुलझती है पहेली
कभी वो तो कभी हम
बहुत दूर निकल जातें हैं ।
………………आनंद  विक्रम

5 comments:

Ashish Awasthi said...

ati uttam !!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बहुत ही बढ़िया उम्दा प्रस्तुति,,,

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विभा रानी श्रीवास्तव said...

बिल्कुल सही बात
सार्थक लेखन
हार्दिक शुभकामनायें

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब, लाजबाब !

अनुपमा पाठक said...

पहेलियाँ कब सुलझी हैं...!
सुलझते ही उलझने का भी दौर शुरू हो जाता है...