कुछ यूँ ही
कुछ तथाकथित साहित्यकार साहित्य में हदय के उद्गार कम मन के कुविचार ,मन
की कुंठा ज्यादा लिखतें हैं । ये बहुत ही निंदनीय और शर्मनाक है । बहुत
जल्दी प्रसिद्ध होने के ख्याल से लिखा गया ऐसा साहित्य समाज के लिए भी
अभिशाप है । ऐसे साहित्यकार समाज को क्या पढाना चाहतें है इनके लिखे को
पढकर मन उद्वविग्न हो जाता है ,मन कसैला हो जाता है । साहित्य पढे़ लिखों
का समाज माना जाता है और यहॉ समाज के आरोप-प्रत्यारोप एवं गाली-गलौच को भी
सभ्य भाषा में ढालकर पढने लायक भाषा में ढाला जाता है ताकि किसी
को पढनें में बुरा न लगे । ये तथाकथित साहित्यकार तो परदे के बाहर एकदम
यूॅ ही निर्वस्त्र नाचने को तैयार बैठे है । कहने को तो पढ़े लिखे पी०एच०डी
किये सभ्य समाज से आयें हैं लेकिन मानसिकता बहुत ही तुच्छ है । मानते हैं
कि विचारों की स्वतन्त्रता सबको है लेकिन इस स्वतन्त्रता में नैतिकता से
पलायन कर जायें भला ये क्या बात हुई । ऐसे तथाकथित साहित्यकारों की कडी
निन्दा की जानी चाहिए और खुले मंच से विरोध किया जाना चाहिए ।@avt
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