Saturday 21 July 2012

           प्रेम पत्र 

प्रिय दुःख है कि                                                                            
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 तुम मेरे सुंदर और कोमल अंगो से
प्रेम रखते हो
और तुम्हारे प्रेम का करने का आधार
हाड़-मांस से बने लोथड़े है
मैं तुम्हें अपना
सब कुछ मान चुकी हूँ 
जबकि तुम मुझसे नहीं 
मेरे तन से प्रेम रखते हो 
मेरे मन और ह्रदय की कभी 
थाह नहीं ली तुमने 
कितना अथाह सागर है प्रेम का 
कितना भोलापन है मेरे प्रेम में 
तुम्हें पाकर 
कि मैंने तुम्हारे उन भावों को 
स्वयं से छिपाया है 
जो केवल मेरे यौवन की 
मादकता और काम  को
प्रेरित करने वाले अंगों की 
चाह रखतें है 
मैंने तुम पर स्वयं से अधिक 
विश्वास किया है 
तुम्हारी सब कमियों को भूलकर 
बल्कि विश्वास करने की सीमा को 
मै लाँघ आई हूँ 
प्रिय शायद ही तुम सोच सको 
कि मैंने तुम्हें 
अपने ह्रदय का स्वामित्व दे दिया है 
बल्कि ये सोचा होगा कि 
मै तुम्हें अपनी काम वासना हेतु 
स्वयं को सौंप रही हूँ 
प्रिय दुःख यही है कि तुम 
या तो मुझे गलत समझ रहे हो 
या समझने का प्रयत्न नहीं कर रहे 
तुम्हारे ह्रदय में मेरा स्थान 
भौतिक उपभोग कि वस्तु का 
पर्याय बनकर रह गया है 
जबकि मैंने अपने ह्रदय के 
रोम-रोम में बसा लिया 
सब कुछ जानते हुये भी 
तुम्हे अपना ह्रदय दे दिया 
न जाने क्यों विश्वास है मुझे 
स्वयं पर और अति प्रेम पर 
कि मै तुम्हे तराश लूंगी 
और प्रेम के सांचे में ढाल सकूंगी   

                                     

1 comment:

annapurna said...

बहुत ही उम्दा लेखन है आपका भाई जी ।